बड़े बेआबरू होकर ........। .

 

                         बुक शेल्फ से किताबें उठा उठा कर जमीन पर पटकी जा रही थी।  कबाड़ियों को क्या सब धान बाइस पसेरी लेना है। घर वाले भी इस रद्दी से मुक्ति पाएंगे और सेल्फ उनके शो पीस रखने के काम आएगी या फिर क्रॉकरी। 

              ऊपर से गिराई जा रही किताबों की पीड़ा किसी को समझ नहीं आ रही थी। 

    -आह , 

    - ओ माँ , 

    - बस करो , 

    - रहने दो - की चीखों के साथ वे अपने में भी जीवन होने की दुहाई दे रहे थीं।  लेकिन कौन समझेगा ? नीचे गिर कर सब एक दूसरे से जुड़ने लगीं और फिर सोचा कि अलग तो हो ही रहे हैं क्यों का नाम पता जान लें। 

- 'सखी, कहाँ से आई थी तुम ?'

- 'मेरे लेखक ने अपनी पुस्तक के विमोचन के साथ एक लिफाफा रख कर मुझे भेंट किया था लेकिन लिफाफा सबसे पहले खोल कर रूपये गिने गए और चले गए जेब में।  मुझे अपने साथ वाले को पकड़ा दिया और उसने इस शेल्फ में रख दिया। मेरी पैकिंग खोलने की भी नौबत न आई , पढ़ने की बात तो दूर रही।'

- 'अरे सखी मेरी भी सुनों , मुझे तो रखे रखे दीमक ही खा गयी। मेरे दर्द को कौन समझेगा?'

- 'ये फूल और रिबन जिसने बांधें होंगे नहीं सोचा होगा कि अब ये खुलेंगे ही नहीं और सूख जायेंगे।'

- 'कोई कह गया कि सूखे हुई फूल किताबों में मिले , यहाँ तो बाहर ही बंधे बंधे सूख गए और बिखर गए।'

- 'मत रोओ, हमारी एक ही गति है और इनका कद्रदान भी कोई न होगा।'

- 'अरे हमें किसी लाइब्रेरी में ही जीते जी दे जाते तो कोई तो उठाता, पढता न तो कम से कम उठा कर निहार तो लेता और हमारे होने का अर्थ सार्थक हो जाता।''

                 "चलो चलो उठाओ इनको और इस बोरी में भर लो "

                 "भैया अच्छी और दीमक वाली अलग अलग बंद कर दें  क्या ?" साथ आया लेबर पूछ रहा था।

                 "सब एक ही दाम लगेंगी , इकट्ठे भर लो। " कबाड़ी ने मूल्याङ्कन कर दिया।

"भैया जल्दी से यहाँ से हटाओ ये किताबें हमको सफाई भी करनी पड़ेगी। " माननीय के बेटे कबाड़ी पर चिल्ला रहे थे 

     जब किताबों को इकठ्ठा किया गए और बोरी में भरा जा रहा था तो सब आपस में गले मिल गयी और बोली - "बहन वैसे हम सब अलग भले रहे लेकिन आखिरी विदाई पर तो आपस में गले मिलकर रो लें।"

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मन के सपने !

कंचन सिंह चौहान (8) final