मन के सपने !

                निधि ने इस बार स्टेशन पर उतरते ही सोच रखा था कि इस बार ऑटो से नहीं बल्कि रिक्शे से बेटी के हॉस्टल जायेगी ।  सुबह ट्रेन पहुँचती है तो आस पास का नजारा देखने में अच्छा लगता है।  स्टेशन से बाहर निकली तो सामने पार्क के बाहर ढेर सारे रिक्शे खड़े थे वहां पर कोई रिक्शेवाला पास की दुकान में नाश्ता कर रहा था , कोई पार्क के अंदर लगे नल पर नहा रहा था और कोई रिक्शे पर बैठा सवारी का इन्तजार कर रहा था।
                        अचानक निधि की नजर राजू पर पड़ी , अरे ये तो राजू है , उसके घर से कुछ दूर पर उसका घर है।  पिता शराबी था और एक दिन छोटे छोटे बच्चों को छोड़ कर चल बसा।  हर तरफ एक ही आवाज थी कि अब क्या होगा ? सावित्री क्या करेगी ? तीन बेटों और एक बेटी का बोझ है उसके ऊपर।  पति तो मानो बोझ ही था।  कुछ अनाज गाँव से आ जाता तो किसी तरह से गुजर बसर कर लेती थी।  थोड़ा बड़ा होते ही राजू घर से निकल आया।  वहां पर किसी को कुछ भी पता नहीं था कि वह करता क्या है ? लेकिन साल छह महीने में जब भी जाता खूब ठाठ से जाता।  बढ़िया कपडे , सबके लिए कुछ न कुछ ले जाता। मोहल्ले वाले समझते कि कहीं कुछ तो कमा ही रहा है और सावित्री की सहायता भी हो रही है।  वह हर महीने मनीऑर्डर से कुछ पैसे भेजता रहता था।
       निधि ने उसे देख कर टोका  - "राजू "
वह चौंका कि उसको घर के नाम से पुकारने वाला यहाँ कौन आ गया ? वह रिक्शे से उतर कर खड़ा हो गया और पलट कर निधि को देखा।  वह एकदम सकपका गया फिर खुद पर काबू पाते हुए बोला - "आंटी जी आप यहाँ कैसे ?"
"यहाँ पास ही हॉस्टल में बेटी रहकर पढ़ रही है , उसी के पास आयी थी।  चलोगे वहां तक ?"
"जी क्यों नहीं ? आइये। "
                     निधि रिक्शे में बैठ गयी और उसको बेटी के हॉस्टल का पता बता कर चलने को कहा।  रास्ते में वह मोहल्ले के हालचाल पूछता रहा और बताता रहा कि वह यहाँ इतना कमा लेता है कि घर भेज कर कुछ बचा भी लेता है और अपना क्या यहां पार्क के किनारे रिक्शा लगा कर सो जाता हूँ और सुबह उठ कर नहा धो कर फिर रिक्शा उठा लेता हूँ।  जहाँ भूख लगी कुछ खा लिया और फिर यही काम।
                      हॉस्टल आ चुका था तो निधि ने राजू से रुकने को कहा और उतर कर उसे पैसे देने लगी तो राजू ने पैसे लेने से इंकार कर दिया।
"अरे आप से पैसे लेकर कोई अमीर नहीं हो जाऊँगा , घर में भी कोई पैसे लेता है।" राजू थोड़ा पीछे हट गया।
"अच्छा मेरा आशीर्वाद समझ कर ले लो , खूब कमाई करो और ईश्वर तुम्हें बरकत दे। " कह कर निधि ने उसके हाथ पर दस का एक नोट रख दिया और चलने के लिए मुड़ी ही थी कि राजू ने बुलाया - "आंटी जी , एक बात सुनिए। "
      निधि मुड़ कर वापस आयी - "हाँ कहो राजू क्या बात है ?"
उसने हाथ जोड़ रखे थे और विनय के साथ बोला - " आंटी जी ये बात कि मैं यहाँ रिक्शा चलता हूँ , आप मोहल्ले में किसी को मत बतलाईयेगा क्योंकि आप जानती है कि मैं ज्योति को पढ़ा लिखा कर कुछ बनाना चाहता हूँ और कल को जब उसकी शादी करने चलूँगा तो रिक्शे वाली की बहन समझ कर कोई मुझे अपने दरवाजे खड़ा नहीं होने देगा।  मैं उसकी शादी भी अच्छे घर में ही करना चाहता हूँ।   राजू की आँखों में आँसूं  देख कर निधि ने उसके सिर पर हाथ फिराकर बोली - " राजू तुम बेफिक्र रहो , ये बात मैं कभी किसी को नहीं बताऊँगी क्योंकि ज्योति तुम्हारी बहन है तो मेरी भी बेटी है। "
                          राजू मन में संतोष लिए रिक्शा लेकर वापस मुड़  गया।

रेखा श्रीवास्तव
कानपुर

मेरी ये लघुकथा मौलिक एवं स्वरचित है।
रेखा श्रीवास्तव
71 , पीडब्ल्यूडी हाउसिंग सोसायटी
सहकार नगर , रावतपुर गाँव
कानपुर  - 208019
rekhasriva@gmail.com
mob. 9936421567

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