संदेश

बड़े बेआबरू होकर ........। .

                           बुक शेल्फ से किताबें उठा उठा कर जमीन पर पटकी जा रही थी।  कबाड़ियों को क्या सब धान बाइस पसेरी लेना है। घर वाले भी इस रद्दी से मुक्ति पाएंगे और सेल्फ उनके शो पीस रखने के काम आएगी या फिर क्रॉकरी।                ऊपर से गिराई जा रही किताबों की पीड़ा किसी को समझ नहीं आ रही थी।      -आह ,      - ओ माँ ,      - बस करो ,      - रहने दो - की चीखों के साथ वे अपने में भी जीवन होने की दुहाई दे रहे थीं।  लेकिन कौन समझेगा ? नीचे गिर कर सब एक दूसरे से जुड़ने लगीं और फिर सोचा कि अलग तो हो ही रहे हैं क्यों का नाम पता जान लें।  - 'सखी, कहाँ से आई थी तुम ?' - 'मेरे लेखक ने अपनी पुस्तक के विमोचन के साथ एक लिफाफा रख कर मुझे भेंट किया था लेकिन लिफाफा सबसे पहले खोल कर रूपये गिने गए और चले गए जेब में।  मुझे अपने साथ वाले को पकड़ा दिया और उसने इस शेल्फ में रख दिया। मेरी पैकिंग खोलने की भी नौबत न आई , पढ़ने की बात तो दूर रही।' - 'अरे सखी मेरी भी सुनों , मुझे तो रखे रखे दीमक ही खा गयी। मेरे दर्द को कौन समझेगा?' - 'ये फूल और रिबन जिसने बांधें होंगे नहीं सोचा होगा क

कंचन सिंह चौहान (8) final

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नाम: कंचन सिंह चौहान शिक्षा: हिंदी एवं अंग्रेजी परास्नातक, संगीत प्रभाकर पिता: स्व० श्री महादेव सिंह माता: श्रीमती विलास कुमारी रुचियाँ एवं अध्ययन एवं लेखन कार्य-कलाप प्रारंभ में वागर्थ सहित विभिन्न पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, नज़्म के प्रकाशन तथा अंतराग्नि एवं कुछ टीवी शो में काव्य पाठ के साथ साहित्य में प्रवेश. वर्तमान में कहानी लेखन में सक्रिय. हंस, वागर्थ, कथादेश, कथाक्रम, परिकथा सहित विभिन्न पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित वेब पता: http://kanchanc.blogspot.com ई-पता chouhan.kanchan1@gmail.com मोबाइल नं 94510 51840   बहुत पहले एक कहानी लिखी थी....! ११ साल पहले...! कहानी क्या लघु उपन्यास था। मेरे दिल के बहुत करीब....! मेरा ड्रीम प्रोजेक्ट था वो...! कभी कोई छपने को भेजने के लिये कहता भी तो मैं नही देती। मुझे उस पर फिल्म बनानी थी। या फिर जेलों में जा कर प्ले करवाना था। और कहानी के अंत में ये मोनोलॉग नायक की माँ से बुलवाना था। मैने तो बहुत हिफाज़त से रखा था उसे.....जाने कैसे मेरी शेल्फ में अब नही है वो...! मैने कहाँ कहाँ नही ढूँढ़ा...! मन्नत भी मानी..

मन के सपने !

                निधि ने इस बार स्टेशन पर उतरते ही सोच रखा था कि इस बार ऑटो से नहीं बल्कि रिक्शे से बेटी के हॉस्टल जायेगी ।  सुबह ट्रेन पहुँचती है तो आस पास का नजारा देखने में अच्छा लगता है।  स्टेशन से बाहर निकली तो सामने पार्क के बाहर ढेर सारे रिक्शे खड़े थे वहां पर कोई रिक्शेवाला पास की दुकान में नाश्ता कर रहा था , कोई पार्क के अंदर लगे नल पर नहा रहा था और कोई रिक्शे पर बैठा सवारी का इन्तजार कर रहा था।                         अचानक निधि की नजर राजू पर पड़ी , अरे ये तो राजू है , उसके घर से कुछ दूर पर उसका घर है।  पिता शराबी था और एक दिन छोटे छोटे बच्चों को छोड़ कर चल बसा।  हर तरफ एक ही आवाज थी कि अब क्या होगा ? सावित्री क्या करेगी ? तीन बेटों और एक बेटी का बोझ है उसके ऊपर।  पति तो मानो बोझ ही था।  कुछ अनाज गाँव से आ जाता तो किसी तरह से गुजर बसर कर लेती थी।  थोड़ा बड़ा होते ही राजू घर से निकल आया।  वहां पर किसी को कुछ भी पता नहीं था कि वह करता क्या है ? लेकिन साल छह महीने में जब भी जाता खूब ठाठ से जाता।  बढ़िया कपडे , सबके लिए कुछ न कुछ ले जाता। मोहल्ले वाले समझते कि कहीं कुछ तो कमा ही रहा

बेटी !done

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         वह डॉक्टर पहली बार माँ बनने जा रही थी।  अभी तक तो वह दूसरों का प्रसव कराती रही और खुश होती रही।  उसने डॉक्टर होकर भी एक संवेदनशील मन भी संजो रखा था।  जब उसके हाथ से बेटियां जन्म लेती तो वह माँ बाप को हिदायत देती -- " इसकी अच्छे से परवरिश करना , पढ़ाना - लिखना और सुरक्षित रखना। "                वह जन्म ही नहीं दिला रही थी बल्कि कितनी मासूम बेटियों के क्षत विक्षत शवों और पुरुष की हैवानियत की शिकार बच्चियों का परीक्षण भी कर रही  थी।  कोई इनका जन्मदाता होता और कोई इनका भक्षक।वही एक पुरुष और डॉन अलग अलग रूप देख कर वह काँप जाती थी।                     प्रसव पीड़ा होने पर वह भी आम औरत की तरह अस्पताल आयी थी। उसकी सहकर्मी भी आज खुश थीं।  उसने एक बेटी को जन्म दिया और होश आने पर आम माँओं की तरह उत्सुकता से पूछा -- "क्या हुआ ?" "बेटी "उसकी सीनियर डॉक्टर ने उत्तर दिया। "बेटी" " उसने सुनकर गहरी सांस भरी। "अरे तुम भी ?" डॉक्टर ने उससे सवाल किया। "वो बात नहीं है " "फिर?" "मैं सोचती हूँ कि क्

विकल्प !

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*विकल्प* निशा अभी-अभी चाय  पीकर चुकी थी कि मोबाइल बज उठा और उसने उठा कर देखा तो मीना का था । "हैलो ।" "हैलो क्या हो रहा है?" "कुछ नहीं मीना, बस अभी चाय पीकर बैठे हैं" "वाह ! और नाश्ते में क्या बनाया?"  "अरे नाश्ता बनाने की छोड़ो, ब्रैड खा लिया। सुबह-सुबह कामवाली का फोन आ गया कि वह बीमार है ।" "फिर।" "फिर क्या ! अपन हैं न उसका विकल्प ।" "सही कहा तुमने निशा । हमें तो कभी-कभी बड़ा अफसोस होता है।" "ये तो सदियों से चला आ रहा है मीना । फिर अफसोस किस बात का?" "हाँ अफसोस क्या करना? खाना बनाओ तो परिवार के लिए , सफाई करो परिवार के लिए ... ।" "बर्तन भी माँजो तो परिवार के लिए और कोई बीमार हो जाए घर में तो उसकी जगह कमर कसे हम खड़े हैं न ।" पतिदेव का भी चाय नाश्ता खत्म हो चुका था। आदत के विपरीत उन्हौंने अपना कप-प्लेट समेटा और चल दिए किचन की ओर । देख कर निशा खिलखिलाकर हँस पड़ी तो मीना ने पूछा क्या हुआ ?   "शायद विकल्प का सहभागी जा

सुकून !

नीति स्कूल से निकल कर साइकिल से घर की तरफ चली जा रही थी।  ऑफिसर क्वार्टर होने के कारन कुछ रास्ता सुनसान भी पड़ता था।  वह उसी रास्ते पर चली जा रही थी कि  उसके बगल में एक गाड़ी रुकती है और उसको वह लोग गाड़ी में खींच लेते हैं और फिर उसके चिल्लाने से पूर्व ही उसको बेहोश करने के लिए कुछ सुँघा देते हैं।                  नीति जब होश में आयी तो उसने अपने को एक अँधेरे कमरे में पाया , जिसमें एक पुराना  सोफा पड़ा था और एक तरफ एक बैड कहे जाने वाला दीवान। उससे नहीं मालूम था कि कितना बजा  था और वह कहाँ ला कर बंद की गयी थी? उसे भूख तेजी से लोग रही थी लेकिन खाने को कुछ भी न था।  फिर उसने देखा कि कोई दरवाजा खोल रहा है , अँधेरे में रौशनी तेजी से आनी  शुरू हुई तो उसकी आँखें चुंधियाने लगी और उसने आँखों को रौशनी से बचाने के लिए अपनी  हथेली सामने फैला ली। उसे आने वाले की शक्ल नहीं दिख रही थी। "कौन ?" आने वाले ने पूछा। "मैं नीति। ": उसने कांपती आवाज में कहा।           आने वाला समझ गया कि ये कारस्तानी सेठ जी के बेटे की होगी।  वह अपने आवारा दोस्तों के साथ मिल कर कुछ भी कर सकता