आसरा !

             बीमार पति की दवा और १ साल के बच्चे का दूध यही तो उसकी प्राथमिकता थी।  सास मालकिन थीं, लेकिन लाकर देने वाली वह अकेली थी। मीलों पैदल चलकर मोजा फैक्ट्री की बस मिलती थी, तब वह फैक्ट्री पहुँचती थी।  घर से निकलने से पहले सास और पति के लिए रोटियां भी तो बना कर रखनी होती थीं और लौटकर फिर वही काम।  वह बैल की तरह दौड़ती रही किन्तु कोई उसकी पीठ  पर हाथ फिराकर पुचकारने वाला न था। सात फेरों का बंधन निभा रही थी।  हाते में रहने वाले सभी तो उसकी तारीफ करते लेकिन जब सास हाते में बैठ कर कमियों की झड़ी लगा देती तो सब उठकर चल देते।

                        फिर एक दिन फैक्ट्री से लौटते समय दुर्घटना का शिकार हो गयी।  एक हाथ और दोनों पैर में फ्रैक्चर,  बस सब कुछ वही रुक गया - बैल की सी दौड़ और सबकी सेवा सुश्रुषा।  कुछ मुआवजा मिल गया और सास की जेब में चला गया - मालकिन जो थी।  उसके हिस्से में आया -- "भैंसे कि तरह पड़ी रहती है, दोनों टाइम खाने को चाहिए,  तेरे बाप ने नौकर नहीं भेज दिए हैं, जो तुझे बिस्तर पर लिटा कर खिलाएँ।"

                       वही पति भी अलग - "ठीक से सड़क पर चलती होती तो ये दिन न देखना पड़ता।  सारी देह पिराती है ये नहीं कि पूछ ही ले। कौन कब तक लेटे लेटे खिलायेगा?"

                       सुनती और चादर में मुँह ढक कर रो लेती।  उसका बैल से जुटे रहना किसी को नहीं दिखा अब बेबस हैं तो भैंसे सी लगने लगी। और फिर एक दिन वह भी आया जो वह उठी ही नहीं - सात फेरों के बंधन से खुद को मुक्त कर लिया। जितनी दवायें उसको १५ दिन के लिए दी गयीं थी, उसने सब एक साथ खा लीं।  कुछ और तो कर नहीं सकती थी। अब न भैंसे सा जीवन रहा, न बाप का ताना।  कुछ बोले उसने गलत किया और कुछ ने कहा -  "आखिर कहाँ तक अकेले लड़ती, लड़ाई तो लड़ी जा सकती है, अगर कोई एक भी उसके आँसुओं को पोंछने वाला होता।"

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